تأخرتي..
وانا..
في البعد..
مصلوب ٌ..
اداري..
بؤس احزاني..
نفيت..
خلف قضبان ٍ..
و انت..
كنت سجّاني..
صلبت ْ..
دونما ذنب ٍ ..
ومر ّ الشوق..
ابكاني..
كتبتك..
في كل اوراقي..
وعلقت رسمك..
بخيالي..
وجدراني..
تعبت ُ..
وانا امضي..
احاكي..
صمت حيطاني..
فعودي..
كي اقبلك..
اضمك..
بين احضاني..
واحكي..
عن صدى وجع..
بقلبي..
مثل بركان..
فطيفك..
ظل ياتيني..
بأيلول..
ونسيان؟
وفي حر..
وفي برد..
فصول..
كلها تترى..
تذكّرني..
بأشجاني..
سماء ٌ..
لست اعرفها..
وارض ٍ..
تحاصرني..
كزنزان..
فدونك..
من يحدثني..
ودونك..
من اخاصمه..
اصالحه..
اشاكسه..
اشاطره..
لهذياني..
ودونك..
من سيفهمني..
غريب ٌ..
انت اوطاني..
عمر طه اسماعيل

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